समस्याओं से जूझता आम नागरिक
ईश्वर (माता-पिता) ने हमें ज़िन्दगी जीने के लिए दी है उस जिंदगी से सीखने की जरुरत होती है उस ज़िन्दगी की गहराई से अध्ययन करने और चिंतन करने वाला ही ज़िन्दगी का असली आनंद लेता है।
आज से सैकड़ो साल पहले यातायात के संसाधन नहीं थे फिर भी लोग एक दूसरे से जुड़े रहते थे। बातचीत करने का कोई संचार माध्यम नहीं था फिर भी लोग एक दूसरे का समाचार प्राप्त कर लेते थे। आज की ही तरह पहले रोग भी हुआ करते थे दवा नाम मात्र का हुआ करता था फिर भी लोग रोग को सहते सहते ठीक कर लेते थे। कलैण्डर नहीं था फिर भी लोग त्योहार किस दिन मनेगा या पड़ेगा ये उन्हें जान करि मिल जाता था।
पहले के लोग पढ़े लिखे कम थे और जो पढ़े लिखे होते थे उनको बहुत सम्मान मिलता था। देश की आबादी कम थी खेती ही मुख्य जीवकोपार्जन का उत्तम माध्यम था। नौकरी कोई करना ही नहीं चाहता था।
समय की धारा ऐसी बही की देखते देखते तमाम समस्या मनो ख़त्म सी हो गयी पर बहुत बड़ी समस्या ऐसा जन्म ली की लोग समझ ही नहीं पाए और उस चाहत में उलझ कर आज निकल ही नहीं पा रहे।
देश को आज़ादी मिली। एक हाथ में लड्डू दूसरे हाथ में जहर लिए लोग मरने मारने पर उतारू रहे जिनके वजह से हिंदुस्तान का दो हिस्सा हो गया। जिसे जाना था चले गए जिसे नहीं जाना था वो यही रह गए। जो नहीं गए उन्हें आज, नहीं जाने का दुख है जो यही के है और यही है उन्हें उन लोगो के नहीं जाने का दुःख है इसलिए समाज में आज़ादी का लड्डू बाँट रहे है तो दूसरे हाथ से जहर का पानी भी पीला रहे है।
विरोध का जहर इस कदर हावी है की लोग मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से बीमार है उन्हें अपने बच्चों का परवाह उसी तरह कर रहे है जिस तरह सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे।
जीवन मिला है तो जीना ही होगा सीखना कहाँ और किससे है ये आपके स्वविवेक पर निर्भर है। हिंदुस्तान में जाति का जहर कभी भी समाप्त नहीं होने वाला है दूसरा दहेजप्रथा।
पहले जाति की व्यवस्था कर्म आधारित था जो जन्मजाति का हो गया। आज हर जाति समुदाय के लोग अपने अनुसार कर्म कर रहे है परन्तु इनके साथ जाति का ठप्पा जन्मजाति का लग गया है। जाति कोई भी हो सभी में आपसी लड़ाई बहुत अधिक है बावजूद लोग एक दूसरे के लिए हमेशा एक साथ खड़े रहते है उसका नतीजा चुनाव में देखने को मिलता है।
आज एक सामान्य वर्ग भी एक जाति ही है जिसमे पंडित, ठाकुल , लाला, बनिया वर्ग अपने आपको ब्राम्भा की वंशज मानते है। जब की अन्य वर्ग चाहे पिछड़ा , अनुसूचित या अनुसूचित जनजाति का हो ये इनसे दूर ही रहना चाहते है।
दहेज़ प्रथा इस देश का वो कोढ़ है जो सभी वर्गो में विभाजित है जिसकी जैसी हैसियत वो उस पर अमल करता है ये बात अलग है की लोग इसका विरोध करते है लेकिन समय आने पर बिना इसके एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाते है।
आज के युवा वर्ग दहेज़ और जाति प्रथा से रक कदम आगे जाना चाहते है और कुछ जा भी रहे है लेकिन जो सामान्य वर्ग है उन्हें अपनी हैसियत, परम्परा और सम्मान का ठेस लगाने का भय सताता है जिस वजह से हुई शादी भी टूट जाती है।
आज शिक्षा का स्तर बेहद उच्च है लेकिन शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था बेहद निम्न है। शिक्षा का स्तर निम्न होने की वजह से युवा विदेशी कॉलेजों में पढ़ना चाहते है। हमारे यहाँ सरकार भी इस पर ध्यान बिलकुल नहीं देना चाहती वजह साफ है आज का कोई भी मिनिस्टर ऐसा नहीं जिनका कोई कॉलेज, स्कूल, होटल, मॉल , गैस, पेट्रोल एजेंसी , लॉन , पार्क आदि न हो लगभग सभी के पास है। भारत देश में जितना धर्म है उतना ही लोगों पर हावी भी है। जब रोग ठीक नहीं होता, समस्या का समाधान नहीं दिखता व मिलता, तब ईश्वर के शरण में जाने के बजाय ढोंग पर विश्वास करने लग जाते है। ऐसे व्यक्ति अपने जीवन से कुछ भी सिखना नहीं चाहते। अपने जीवन में किये पाप पुण्य को अपने मन की आंखों से या मन मस्तिष्क से चिन्तन नहीं करना चाहते। वो हमेशा अंधविश्वास की ओर भागते,है। जबकि समस्या का जनक वो खुद ही है परन्तु ऐसे लोगों को राह दिखाने वाले भी कम नहीं, नतीजा कमाई का संसाधन ऐसे ही लोगों से करने लगजाते है।
हम विकसित नहीं थे हमारी पूरी व्यवस्था कर्ज पर निर्भर था, आज भी है और आगे भी रहेगा। अगर कर्ज का चादर ओढकर हम ये कहे कि हमारे जैसा विकसित कोई है ही नहीं। कम्पनी है तो बैंक से लोन है। नौकरी है तो घर, कार, जमीन लोन पर है। अब तो विकास की बयार इस तरह है कि दलाली की कमाई से विदेश घूमने का पूरा बन्दोबस्त है। यानि हम विकसित है ऊपर से, अन्दर से एक खोखले व्यवस्था का अंश। जहाँ सकून नहीं, जहाँ सुबह देख पायेगा या नहीं, जहाँ आज खाया है कल मिलेगा भी या नहीं आदि। फिर भी हम बड़े गर्व से कहते है हम किसी से कम नहीं।
आम नागरिक के लिए समस्या पहले कम था लेकिन जिस तरह सुविधा का विकास होता गया हमारी जरूरते आवश्यकता से अधिक बढती गयी।
अंत में यही कहना चाहूंगा की पहले हमारे घरों की दीवारे तीन फ़ीट की कच्ची या पक्की हुआ करती थी। उसके बाद १८ इंच , फिन नौ इंच, उसके बाद फिर पांच इंच शहरो में तीन इंच के दीवारे भी आपको बहुधा देखने को मिलेगी। उसी तरह पहले लोग १५० साल जीते थे महाबलशाली हुआ करते थे आज ६० साल का होते होते लोग लगड़ा होने लगे है चलते फिरते ही मरने लगे है।
तमाम सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक, पारिवारिक समस्या होते हुए भी हम अपने आप को स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे है। जो एक सामान्य आय वालों के लिए बेहद जटिल और मुश्किल भरा राह है।
एक तरफ महंगाई तो दूसरी तरफ रोग का आतंक तो तीसरी तरफ प्राकृतिक आपदाय चौथी सरकार सिर्फ अपनी कमाई | आज स्नातक और परस्नताक के बेरोजगार युवा दस से पंद्रह हजार की नौकरी करने को मजबूर है तो वही बड़ी बड़ी कम्पनी दुनियां का सबसे अमीर बनने के लिए अपने ही लोगो को कुचल कर आगे बढ़ने पर आमादा है| सरकार मौन है, सरकार उससे फायदा लेने के लिए अपने परिजनों के नाम कंपनी में अप्रत्यक्ष भागीदार बन जाती है | जिसका भरपूर फायदा संस्था उठाती है |
आप अपने शहरों के स्कूलों, कॉलेजों के बड़ी बड़ी इमारते को देख ले और उस संस्था में काम करने वाले कर्मचारियों से मासिक आय पूछ ले दूध का दूध पानी का पानी पता चल जाएगा | सरकार की उदासीनता यही ख़त्म नहीं होती | आज पुरे हिन्दुस्तान की बात करू तो सबसे ज्यादा शोषण निजी संस्था में काम करने वाले श्रमिकों की होती है जहाँ १० से १२ घंटे काम लिए जाते है बदले में वही गिरा पीटा वेतन , न एच आर , न इंसेटिव , न कर्मचारी भविष्य निधि और न ही मेडिकल की सुविधा और न ही ग्रेचुएटी |
सरकार ईमानदार होती तो सबसे पहले श्रमिक पर ध्यान देती | जैसा की २०१४ में मोदी सरकार ने कर्मचारी भविष्य निधि में भारी फेर बदल किया लेकिन मोदी सरकार ने संस्था को फायदा दिलाने का ऐसा जाल बिना की आज संस्था मालामाल है और श्रमिक बेहद परेशान | २०१४ में जो बदलाव लाया गया इसमें दिया गया की १५००० से काम वेतन वाले श्रमिक चाहे वो जिस भी क्षेत्र का हो उसको काम से काम १८५० /-+ १८५०/- कर्मचारी और कम्पनी को हर माह देना ही होगा, लेट भी नहीं होना चाहिए | उस वक्त सभी लोग खुश हो गए लेकिन जैसे जैसे समय का पहिया आगे बढ़ता गया १५००० का नौकरी चपरासी और छोटे कर्मचारियों को लगभग देना बंद कर दिया गया | अब संस्था अपना पैसा बचने के लिए १५००१ रुपये देती है जिससे की सरकार की नज़र में सुरक्षित दिखता रहे | जिनका वेतन ज्यादा है उनका कर्मचारी भविष्य निधि में पैसा देना पड़ रहा है वैसे कर्मचारी को निकाल बहार कर दिया जा रहा है उनकी जगह जो भी आएगा वो उस पीएफ का भागीदार नहीं हो पायेगा |
ये एक नमूना है जहाँ सरकार ही शोषण करने का हथियार निजी संसंथाओ को देती है | गरीब की थाली में उतना ही अनाज दिया जाता है की वो सिर्फ जी सके | एक समय था लोग खाने के जीते थे आज लोग जीने के लिए खाते है | दोनों में बहुत अंतर है| पहले भर पेट भोजन और आज गिन कर रोटी |
बहुत सी खामिया सरकार में है जिसका भुगतान जनता कर रही है और आगे भी करती रहेगी | जिनका पेट भरा रहेगा वो गुण गान गायेगा और जिनका सूखा या मर रहा है वो इस पर ध्यान कम, ज्यादा पेट के लिए दिन रात एक किया रहेगा| सरकारें आएगी और जाएगी लेकिन सरकार का चाबुक हर कोई के लिए एक ही रहेगा |
जय हिन्द जय भारत




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